Shraddha Murder Case: दिल्ली (Delhi) की एक अदालत ने गुरुवार को श्रद्धा वॉकर (Shraddha Walker) हत्या मामले में आफताब अमीन पूनावाला के नार्को टेस्ट (Narco Test) का आदेश दिया। दरअसल दिल्ली पुलिस (Delhi Police) ने कोर्ट में इस टेस्ट को करने के लिए अनुमति मांगी थी। पुलिस के मुताबिक आफताब (Aftab Amin Poonawalla) पूछताछ में गुमराह करने की कोशिश कर रहा था। साथ ही श्रद्धा के मोबाइल और आरी को लेकर सच्चाई नहीं बता रहा था। अदालत ने जब आफताब से नार्को टेस्ट करवाने के बारे में पूछा गया तो उसने टेस्ट के लिए सहमति व्यक्त की। इसके साथ ही जज से कहा कि उन्हें परिणामों के बारे में पता है। बता दें कि नार्को टेस्ट किसी भी व्यक्ति की अनुमति लिए बिना नहीं करवाया जाता है। आइये अब जानते हैं नार्को टेस्ट क्या होता है और कैसे किया जाता है?
नार्को टेस्ट क्या है?
आइये जानते हैं नार्को टेस्ट आखिर क्या (What is narco test) होता है? नार्को एनालिसिस टेस्ट को ट्रुथ सीरम (Truth Serum) भी कहा जाता है और इसका उपयोग जांच एजेंसियों द्वारा महत्वपूर्ण मामलों को हल करने के लिए किया जाता है। इस टेस्ट में एक दवा (जैसे सोडियम पेंटोथल, स्कोपोलामाइन और सोडियम एमाइटल) जैसे ड्रग्स शामिल होते हैं। जिसके कारण व्यक्ति को एनेस्थीसिया के कई लेवल में एंटर करता है। ऐसे में व्यक्ति न होश में होता है और ना ही पूरी तरह से बेहोश हुआ होता है। सम्मोहन अवस्था (hypnotic state) में व्यक्ति कम हिचकिचाता है और सच बोलने की संभावना ज्यादा होती है।
बताते चलें कि सोडियम पेंटोथल (Sodium pentothal) या सोडियम थियोपेंटल (sodium thiopental) ड्रग्स का इस्तेमाल सर्जरी के दौरान रोगियों को बेहोश करने के लिए किया जाता है। यह दवाओं के बार्बीट्युरेट वर्ग (barbiturate class) यानी नारकोटिक्स दवाओं से संबंधित हैं, जो इंसान के केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (Nervous System) पर अवसाद (depressant) के रूप में कार्य करता है। ऐसा माना जाता है कि यह दवा इंसान को झूठ बोलने ही नहीं देती है, झूठ बोलने के लिए इंसान को दिमाग लगाना होता है। लेकिन इन दवाओं के कारण है वह आधा बेहोशी म होता है और झूठ बोलने लायक उनका दिमाग काम नहीं करता है। यही कारण है कि इसे "सच्चाई सीरम" भी कहते हैं, साथ ही यह भी कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान खुफिया कर्मियों द्वारा इसका इस्तेमाल किया गया था।
कहां और किसकी देखरेख में किया जाता है नार्को टेस्ट?
नार्को-एनालिसिस शब्द ग्रीक शब्द नार्को (जिसका मतलब है एनेस्थीसिया) से लिया गया है। इसका उपयोग क्लीनिकल और मनोचिकित्सा तकनीक (psychotherapeutic technique) के लिए किया जाता है। विशेषज्ञों के मुताबिक, नार्को टेस्ट के दौरान आणविक स्तर (Molecular Level) पर व्यक्ति के तंत्रिका तंत्र (Nervous System) में हस्तक्षेप करके व्यक्ति के सोचने समझने की क्षमता को कम किया जाता है। बता दें कि इस ड्रग वाले इंजेक्शन की खुराक व्यक्ति के लिंग, आयु, स्वास्थ्य और शारीरिक स्थिति के अनुसार तय की जाती है। इसके बाद संबंधित व्यक्ति से जांच एजेंसियां डॉक्टरों की मौजूदगी में पूछताछ करती हैं। इस दौरान किए गए खुलासे की वीडियो रिकॉर्डिंग की जाती है। विशेषज्ञ द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट का उपयोग साक्ष्य एकत्र करने की प्रक्रिया में किया जाता है। प्रक्रिया एक सरकारी अस्पताल में आयोजित की जाती है, अदालत के आदेश के बाद ही इस टेस्ट को करने की अनुमति दी जाती है।
क्या नार्को और पॉलीग्राफ टेस्ट एक जैसे होते हैं?
अगर आप भी यह सोच रहे हैं कि क्या नार्को और पॉलीग्राफ टेस्ट एक जैसे होते हैं? तो आपका जवाब है नहीं। पॉलीग्राफ टेस्ट में लाई डिटेक्टर मशीन का इस्तेमाल किया जाता है, जो प्रश्नों का उत्तर देते समय किसी इंसान के ब्लड प्रेशर, पल्स रेट और सांस जैसे फिजिकल इवेंट्स को रिकॉर्ड करता है, तब डेटा का उपयोग यह निर्धारित करने के लिए किया जाता है कि इंसान झूठ बोल रहा है या नहीं। बताते चलें कि झूठ डिटेक्टर का इस्तेमाल 1924 से पुलिस पूछताछ और जांच में किया गया था। यह अभी भी मनोवैज्ञानिकों के बीच विवादास्पद है और हमेशा न्यायिक रूप से स्वीकार्य नहीं होता है। ऐसा माना जाता है कि इस तरह का टेस्ट पहली बार 19वीं शताब्दी में किया गया था।
क्या भारतीय अदालतों में नार्को टेस्ट स्वीकार्य है?
सबसे अहम सवाल यह उठता है कि नार्को टेस्ट जैसे कोई भी टेस्ट अदालत में स्वीकार्य है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने एक केस को लेकर 2010 में फैसला सुनाया था कि टेस्ट के परिणामों को "कन्फेशन" नहीं माना जा सकता है, लेकिन आरोपी की इच्छा से हुए इन टेस्ट के रिजल्ट्स को सबूत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 20 (3), या आत्म-अपराध के खिलाफ अधिकार का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि किसी भी आरोपी को खुद के खिलाफ गवाही देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। 1997 के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट के अनैच्छिक प्रशासन (involuntary administration) ने संविधान के अनुच्छेद 21 या जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। यह निजता के अधिकार का भी उल्लंघन कर सकता है।
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